रजत भट्ट, गोरखपुर: उत्तर प्रदेश के गोरखपुर में स्थित गांधी आश्रम के स्थापना का इतिहास आज भी महात्मा गांधी के खाकी और खादी की विचारधाराओं का केंद्र बना हुआ है।1940 गोरखपुर के उर्दू बाजार में इसकी शुरुआत हुई थी लेकिन अंग्रेजो ने इसे दो साल बाद यानी 1942 में सील कर दिया था इसके साथ ही यहाँ काम करने वाले सभी कर्मचारियों को जेल में डाल दिया था, लेकिन 15 अगस्त 1947 में देश आजाद हुआ। इसके बाद 1959 में गोरखपुर के गोलघर में फिर से इस गांधी आश्रम की शुरुआत कर की गई, जो अब तक यहां उसी रूप में संचालित है। जिसकी भारत में ही नहीं बल्कि, विदेशों में भी खूब चर्चा है।
ये कहावत है काफी मशहूर
खासबात यह है कि जिस तरह अंग्रेजों से हुई महात्मा गांधी की अहिंसा वाली लड़ाई देश का हर नागरिक जानता है। उसी तरह देश के भीतर बने इस गांधी आश्रम के खादी की पहचान देश और विदेश तक में है। बता दें कि स्वदेश की भावना लिए जिस गांधी आश्रम की शुरुआत गोरखपुर में की गई थी, आज भी उस खादी के सम्मान में गोरखपुर में चरखा चलाया जाता है। महात्मा गांधी की स्वदेशी भावनाओं से गांधी आश्रम की शुरुआत भी गोरखपुर में की गई थी। 'खादी हाथ का कटा हाथ का बुना', ये शब्द गांधी आश्रम में बने खादी के लिए कहा जाता है।
पहले महिलाएं चलाती थी चरखा
गांधी आश्रम के मैनेजर अभिमन्यु सिंह बताते हैं कि पहले के समय में गोरखपुर में कई औरतें चरखा चलाकर इस खादी का काम किया करती थीं, लेकिन अब बस कुछ जगह जैसे सिकरीगंज, कौड़ीराम में आज औरतें चरखा चलाकर काम करती हैं।वर्तमान समय में धीरे-धीरे इसका प्रचलन खत्म हो रहा है, क्योंकि पहले औरतें पैसे भी पाती थीं और इससे बने उत्पाद के सामान भी ले जाती थीं, लेकिन नई जनरेशन में अब चरखा चलाने का प्रचलन खत्म हो रहा है। गोरखपुर के गांधी आश्रम में रेशम, बारी खादी इन चीजों को बंगाल से मंगाते हैं, जबकि सूती काटन का उत्पाद खुद ही करते हैं।
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