Lucknow: उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान के प्रेमचंद सभागार में पत्रकार धीरेंद्र सिंह के यात्रा कहानी संग्रह 'अल्बलुआ' (albalua) का विमोचन किया गया। समाज कल्याण विभाग के निदेशक पवन कुमार, पूर्व महानिदेशक भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण राकेश तिवारी, व्यंग्यकार अनूप मणि त्रिपाठी, लखनऊ विश्वविद्यालय के पत्रकारिता एवं जनसंचार विभाग के अध्यक्ष प्रो. मुकुल श्रीवास्तव ने किया। अल्बलुआ शब्द भले ही आपको विचलित कर रहा हो लेकिन इसमें जम्मू कश्मीर के उन अनुभवों के बारे में लिखा गया है जो खुद धीरेंद्र ने महसूस किया है। इस दौरान पवन कुमार सिंह ने कहा कि यात्रा महज स्थान परिवर्तन नहीं है। बल्कि यात्रा एक से दूसरे स्थान के बीच अनुभवों का नाम है। अल्बलुआ पुस्तक इसी पर है।
रील में सिमट गया साहित्य - प्रो. मुकुल श्रीवास्तव
व्यंग्यकार अनूप मणि त्रिपाठी ने कहा कि यह महत्वपूर्ण यात्रा वृतांत है। पुस्तक कई धारणाओं को नवान तोड़ती है। प्रो. मुकुल श्रीवास्तव ने कहा कि एक ऐसे दौर में जब सारा साहित्य रील में सिमटा है, लोगों ने होने पढ़ना कम कर दिया है, ऐसे में यात्रा उत्था वृतांत की जरूरत है, क्योंकि यात्राएं। हमें समावेशी बनाती हैं। राकेश तिवारी ने कहा कि जितना घूमेंगे हुंचक उतनी ही इन स्थानों से संबद्धता बढ़ेगी। समारोह का संचालन बिंदु जैन ने किया। समारोह में पुस्तक प्रकाशक अविलोम प्रकाशन मेरठ स्टडी के सह-संपादक अभिनव चौहान, धीरेंद्र सिंह के पिता बैजनाथ सिंह, दिलीप सिंह, भाभी बबिता सिंह सहित कई साहित्यप्रेमी मौजूद रहे।
जम्मू कश्मीर यात्रा पर धीरेंद्र सिंह से घरवालों का सवाल
जम्मू कश्मीर जा रहा हूं।" मां ने पूछा "क्या करने?" दरअसल पिछले कई सालों से चली आ रही ब्रेकिंग मां और परिवार को तनाव देने के लिए काफ़ी होती थी, तो ये सवाल लाजमी था उनकी तरफ से, हां कुछ घरों में बगल वाली गली जाने की बात कहने पर भी ये सवाल हो जाता है) खैर, मैंने जवाब दिया.... "अरे इतने सालों से आपको पता है, मैं जम्मू कश्मीर घूमने के लिए पागल रहा हूं।
अच्छा कितने दिन में लौटोगे?" मां ने दूसरा सवाल दागा। (माहौल को सोच कर उनकी टोन, पूछने वाली कम, दागने वाली ज्यादा लग रही थी।) "लौटने के लिए नहीं घूमने और अपनी अखबारी दुनिया की नौकरी दोनों एक साथ करने जा रहा हूं।"
पहले तो खामोशी छाई रही, फिर चिंता भरी तेज आवाज में मम्मी बोलीं, "क्या मतलब कि नौकरी करने जा रहा हूं, तेरा दिल्ली, लखनऊ और गोरखपुर से दिल नहीं भरा, जो ऐसी जगह पर जा रहा है? एक जगह कब टिक कर रहोगे?" अब मैं उन्हें भला क्या समझाता। इन न्यूज चैनल और अखबारों की हेडलाइनों ने छाप
ही कुछ ऐसी दिमाग पर छोड़ रखी थी, हर आम और खास इंसान पर। खैर.... मैं कुछ दिन के लिए गोरखपुर से घर लौटा और फिर अपने सफर पर निकल पड़ा, जहां कई किस्से और वाकई मां के डरावने सपने वाला जम्मू कश्मीर मेरा इंतजार कर रहा था। जहां रास्ते भी सफर से रोक रहे थे, तो एक नमाजी को शंकराचार्य, उसकी इबादत से भी प्यारा था। कोई कश्मीर का बंदा गहरी घाटियों के बीच जान लेने पर अमादा था।
Copyright © 2022-23 All Rights Reserved